गुरुवार, सितंबर 08, 2011

प्याली में तूफान: हत्यारों से सहानुभूति क्यों?


यह ब्लॉग मैंने दैनिक हिंदुस्तान के वेब साईट पर पढ़ा. सोचा कि सब के साथ बाँट लिया जाय. "प्याली में तूफान" के लेखक श्री शशि शेखर जी के हैं जोकि दैनिक हिन्दुस्तान के प्रधान संपादक हैं. विस्तार से जानने के लिए इधर क्लिक करें.
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मेरे एक पत्रकार मित्र हैं। जन्म और कर्म से सौ फीसदी भारतीय। पैदा हुए तमिलनाडु में और पले-बढ़े मध्य प्रदेश में। पिछले 30 साल से दिल्ली में काम कर रहे थे। घर में तमिल बोली जाती है। उनकी पत्नी को लगता रहा है कि मेरे पति तमिल कौम’ के प्रति जरूरत के मुताबिक समर्पित नहीं हैं। बरसों से दिल्ली के एक स्कूल में पढ़ाने के बावजूद वह अभी तक चोल और पाण्डय राजाओं के समय में प्रचलित तमिल राष्ट्रवाद की अवधारणा को मन में पालती-पोसती आई हैं। इस चिंतनशील परिवार में पिछले कुछ महीनों से अपने आग्रहों को लेकर बहस पनप रही है। क्यों?
हुआ यूं कि मेरे मित्र को चेन्नई से नई नौकरी का प्रस्ताव आया। उन्हें वहां जाकर न्यूज टीवी चैनल की एक श्रृंखला शुरू करनी थी। इससे पहले भी वह देश के नामचीन चैनलों में काम कर चुके हैं। उन्हें उस तबके का माना जाता हैजो सीना ठोंककर कहता है कि हम ओरिजिनल टीवी जर्नलिस्ट’ हैं। इस न्योते को पाने के बाद वह दुविधा में पड़ गए। दिल्ली में सालों-साल रहते हुए उन्हें लगने लगा था कि वह राष्ट्रीय पत्रकार’ हैं। ऐसे में उस तमिलनाडुजहां वह कभी रहे ही नहींलौटकर चैनल शुरू करना चुनौतीपूर्ण था। वह मेरे पास सलाह लेने आए। मेरा कहना था कि हम सबको अब महानगरों को छोड़कर अपनी-अपनी जमीन की ओर लौटना चाहिए। महानगरों का सिर्फ एक ही चरित्र होता है कि उनका कोई चरित्र नहीं होता। तरह-तरह के लोग रोजगार की तलाश में हर रोज यहां भीड़ बढ़ाते हैं और फिर उसी में गुम हो जाते हैं।
इसके बरखिलाफ मंझोले और छोटे शहरों में अब भी स्पंदन है। उनका अपना मुकम्मल चरित्र और चेहरा है। चाल भले ही थोड़ी सुस्त होपर देश की तरक्की में उनके योगदान को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। उन्हें मेरी बात जंच गई और कुछ ही दिन में वह चेन्नई जा बसे। पर फोन पर बातचीत जारी रही। कुछ महीने पहले जब वहां चुनावी बुखार तपिश की सीढ़ियां चढ़ रहा थाउनका फोन आया। खासे उत्तेजित थे। कहने लगे- सरयहां तो सब कुछ बदल गया है। हम जो तमिल अपने घर में बोलते हैंउस पर लोग भौंह चढ़ाते हैं।
राजनीतिज्ञों ने भाषा पर भी कब्जा जमा लिया है। पिछले 40 साल के दौरान स्कूली किताबों में इस तरह के शब्द जोड़ दिए गए हैंजिन्हें मुंह पर लाना हमारे यहां अच्छा नहीं माना जाता है।इसके बाद वह देर तक बताते रहे कि किस तरह तमिलनाडु के लोगों के आचार और व्यवहार में अंतर आया है और वह वहां पहुंचकर महसूस कर रहे हैं कि उनके अप्पा और अम्मा जिसमद्रास’ की बात किया करते हैंवह अतीत की अंधी गली में गुम हो चुका है। मैंने उन्हें समझाने के लिए कहा कि यह हाल तो उत्तर भारत का भी है। गांवकस्बे-शहर सब बदल गए हैं। उनका जवाब था कि अभी तक व्याकरण और बोली के तौर पर हिंदी सियासत का शिकार नहीं हुई। मुझे लगा कि दिल्ली का नॉस्टेल्जिया उन्हें सता रहा है और वह अति भावुक हो रहे हैं।
पिछले हफ्ते फिर फोन आया- अरे साहबयहां तो गजब हो रहा है। राजीव गांधी के बचे-खुचे हत्यारों को 9/11 को फांसी दी जानी हैपर कुछ लोग उबले पड़ रहे हैं। एक ने तो आत्मदाह तक कर लिया। अजीब बात है। सब जानते हैं कि ये एक पूर्व प्रधानमंत्री के हत्यारे हैंफिर भी राजनीति हो रही है। अब तक मैं जैसी पत्रकारिता करता आया हूंउतनी तटस्थता यहां के चंद स्वार्थी लोगों को नागवार गुजर सकती हैफिर भी मैं अपना काम करता रहूंगा।’ मैंने उनसे कहा कि इस मानसिकता पर एक लेख हिन्दुस्तान’ के लिए लिख भेजिए। उन्होंने हां कर दीपर बाद में एक एसएमएस आ गया कि व्यस्तता की वजह से लिख पाना संभव नहीं है। यह एक नए और 24 घंटा खबर उगलने वाले संपादक की विवशता थी या वह आवेगमयी भावना का शिकार बनने से डर रहे थे।
जो भी होदो दिन बाद खबर आ गई कि वहां के हाईकोर्ट ने फांसी पर आठ हफ्ते के लिए रोक लगा दी है। इस बार मैंने उनको फोन कर पूछा कि इस फैसले से आपको राहत मिली होगी?कम-से कम कुछ हफ्ते आप अपनी नैतिक ऊहापोह से बचे रहेंगे। वह हंसते हुए आगे बोले- यहां तो हर ओर खुशी का आलम है।’ मैं फोन काटने के बाद देर तक सोचता रहा कि जब भी कोई आतंकवादी हमला होता हैतो लोग समूची व्यवस्था को लचर करार दे देते हैं। कोई हमारे लोकतंत्र को लिजलिजा बताता हैतो किसी की आग उगलती हुई जुबान पर सान चढ़े हुए शब्द होते हैं। हमलावर अंदाज में आम आदमी पर इन्हें उगलते हुए नेतागण भूल जाते हैं कि लोगों के दिलों पर गहरे घाव भी हो सकते हैं। पर जब आतंकवादियों को फांसी देनी होती हैतो इस तरह के लोग बिलों में दुबक जाते हैंउलटबांसियां बोलने लगते हैं। सियासत का यह दोमुंहापन खतरनाक है। दुर्भाग्यतमिलनाडु इसका अकेला उदाहरण नहीं है।
इन पंक्तियों को लिखते समय ही खबर आई कि पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने राष्ट्रपति को खत लिखा है। वह चाहते हैं कि देविंदरपाल सिंह भुल्लर का मृत्युदंड मुआफ कर दिया जाए। ये वही भुल्लर हैंजो 1993 में युवक कांग्रेस के दफ्तर के सामने कार में विस्फोट कराने के षड्यंत्र में शामिल थे। आतंकवाद का मुखरता से विरोध करने वाले मनिंदरजीत सिंह बिट्टा की हत्या के लिए प्रायोजित इस हमले में आधा दर्जन से अधिक लोग मारे गए थे। अपनी गिरफ्तारी के बाद से पिछली 26 मई, 2011 तक निचली अदालत से लेकर राष्ट्रपति तक भुल्लर अपने सभी कानूनी हक आजमाकर देख चुका है। हर दरवाजे से दुत्कारे जाने के बाद राजनेता उसे बचाने के लिए आगे आए हैं। बादल से पहले अमरिंदर सिंह उसके प्रति अपनी सहानुभूति जगजाहिर कर चुके हैं। ये वही अमरिंदर हैंजो कांग्रेस की नुमाइंदगी करते हैं और पंजाब के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। क्या वह राजीव गांधी के हत्यारों के प्रति भी यही रवैया प्रदर्शित करना चाहेंगे?
जब तमिलनाडु और पंजाब में ऐसी हलचल मची होतो जम्मू-कश्मीर के हुक्मरां कैसे चुप रह सकते हैंउमर अब्दुल्ला भी चाहते हैं कि अफजल की फांसी के फैसले पर पानी फेर दिया जाए। अमरिंदर सिंह की तरह ही उमर अपने आजाद खयालों के लिए जाने जाते हैं और अक्सर कट्टरपंथियों की नाराजगी झेलते हैं। पर सियासत के ये चैंपियन अलग मिट्टी के बने होते हैं। अपनी निजी जीवनशैली के चलते भले ही वे किसी से भी टकरा जाएंपर जब वोटों का सवाल आता हैतो उनमें और किसी अतिवादी में कोई अंतर नहीं रहता।
तय है। इस मानसिकता को बदले बिना हम कभी आतंकवाद से जीत नहीं पाएंगे। हांएक सुकून जरूर है। पंजाब और कश्मीर के इन उदाहरणों के जरिये मैं अपने मित्र को यह समझाने में कामयाब हुआ कि राजनीति और राजनेताओं के मामले में कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है। वह अब शांत और स्थिर हैं।
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मेरे भी एक मित्र हैं, मुंबई में पलेबढ़े, धाराप्रवाह में हिंदी बोलते हैं. हिंदी के आम अलंकारों पर भी शानदार पकड़ है. अपनी मातृभूमि से अगाध प्रेम है. भाषा के मामले में बिलकुल एक जैसे विचार रखते हैं वो भी. एक दिन ऐसी ही चीजें उन्होंने मुझे बतायी थी. वो तमिल सिनेमा को भी इसमे शामिल करते हैं. विशुद्ध गर्वीले भारतीय हैं.
ऐसे लोगों का दर्द मैं समझ सकता हूँ. राजनिति अब देश को तोड़ने में लग गयी है. राजनिति राष्ट्रवाद को  क्षेत्रवाद के पैरों तले कुचलने में लगी है. जनता भोली है. पर दोस्तों भाला बनाते दें नहीं लगेगी.
कई दिनों से लिखना चाहता था. आवेगमयी भावुक विरोध की संभावना को मद्देनजर रखते हुएमैं भी नहीं लिख पाया था. पर आज अपने को रोक नहीं पाया. व्यवाहरिक बनाने की चाह में अपने राष्ट्रवाद को दबा रहा था. परन्तु अन्दर ही अन्दर चुभता था कुछ. आज लिख कर अच्छा लग रहा है. 
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सोमवार, अगस्त 22, 2011

अन्ना ही अन्ना

अन्ना ही अन्ना किया करो दुःख न किसी को दिया करो.
वो लोक-पाल का मालिक है, बस उसके पीछे चला करो...
अन्ना ही अन्ना... हाँ जी अन्ना ही अन्ना...
तो बोलो अन्ना ही अन्ना...

शनिवार, अप्रैल 30, 2011

हमारी राष्ट्रभाषा

एक प्रश्न: हमारी राष्ट्रभाषा क्या है!
उत्तर: हमारी कोई राष्ट्रभाषा नहीं है.

क्या????? 

जी हाँ हमारी कोई राष्ट्र भाषा नहीं हैं.

हैरान हैं! मैं भी हुआ था. मुझे भी ऐसा ही एक झटका लगा था कि हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी नहीं है. हिंदी भारतीय गणतंत्र की अधिकारिक भाषा है. मतलब हमारे सारे सरकारी कामकाज हिंदी में होते हैं. अंग्रेजी हमारी दूसरी अधिकारिक भाषा है.

सुधिजन कहते हैं, बिना राष्ट्र भाषा के वह देश मूक बधिर है. दोस्तों हम १८०० से ज्यादा बोली जाने वाली भाषाओं के साथ गूंगे बहरे हैं.

जिम्मेवार कौन? हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने पर, कुछ लोगों ने आपत्ति की . परन्तु आपत्ति करने वाले इसके लिए दोषी नहीं हैं. दोषी हैं हम, हिंदी भाषा भाषी लोग. मूलरूप से तो तमिल नेताओं ने हिंदी के राष्ट्रभाषा होने का विरोध किया. सबसे पहले तमिलनाडु में हिंदी विरोध शुरू हुआ. और यह आजकल की बात नहीं है. यह शुरू हुआ १९३७ से. मैं इसके विस्तार में नहीं जाना चाहता. क्योंकि इन लाइनों को पढ़ने के बाद बहुत से लोगों को अचरज होगा और बाकि लोगों का खून उबाल ले रहा होगा - "इन मद्रासियों ने हिंदी विरोध कैसे कर दिया. छोड़ेंगे नहीं इन्हें."

क्या तमिल वाकई जिम्मेवार हैं? मेरा जवाब है नहीं. तब क्या राज ठाकरे - अरे नहीं.
इसके लिए जिम्मेवार हैं हम. हम यानी भारत की सारी जनता जो एक भाषा पर एक मत नहीं हो सके. तमिल, मराठी, असमी और अन्य हिंदी विरोधी लोग, हिंदी को अपनी भाषा नहीं मानते. उनके अनुसार, हिंदी भाषी इसे थोपना चाहता हैं. किसी भी दक्षिण भारतीय को मद्रासी बोल देना, बहुत आम है. लोगों को यह नहीं मालूम हैं कि ४ दक्षिण भारतीय राज्य हैं. और चारों राज्य चार अलग भाषाएँ बोलते हैं. बिहारी को गाली की तरह इस्तमाल करना. किसी भी उत्तर पूर्वी भारतीय को चीनी कहना और फिर खींसे निपोरना. यह सब उत्तरी भारतीयों की आम आदत में शुमार है.  

कोई मलयाली, तेलगू या कन्नडवासी अपने को मद्रासी सुनना नहीं चाहेगा. हमारी लापरवाही का नतीजा है यह. शायद हम और भाषाओं का सम्मान नहीं करते. उनके हिंदी लहजे का मजाक उड़ाते हैं. खासतौर से हिंदी फिल्मों में, विज्ञापनों में. यही हालत उत्तर-पूर्व के राज्यों की है. लोग उन्हें चीनी कहते हैं. लोग दूसरे राज्यों में जा कर वहां की भाषा नहीं सीखते.


यहाँ मैं एक महत्वपूर्ण जानकारी देना चाहूँगा. सारे middle east में हिंदी संपर्क भाषा का काम करती है. यहाँ middle east में भारतीय प्रायदीप के लोग (भारतीय, श्री लंकाई, नेपाली, बंगलादेशी, पाकिस्तानी और अफगानी) ज्यादा हैं. और यहाँ के अरबी भी हिंदी समझ लेते हैं. दुबई हवाई अड्डे पर मैंने अरबी लोगों को नेपाली मजदूरों से हिंदी में बात करते सुना है.

परन्तु मैं राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी नहीं चाहता. राष्ट्र भाषा होनी चाहिए भारती”. इस भाषा में हिंदी हो, उर्दू की नजाकत हो, पंजाबी का जोश हो, तमिल का "ल" हो. एक ऐसी भाषा जो हमारी १८ भाषाओ का मिश्रण हो. उसमे सभी भाषाओं और लिपियों के वर्ण और शब्द हों. एक नयी भाषा जो सबको अपनी लगे. हम नॉन-तमिल kozhikode को सही उच्चारित कर ही नहीं सकते. हम पढेंगे कोझिकोड. परन्तु यह है कोडिकोड, यह उच्चारण तमिल उच्चारण के सबसे करीब है.

यह तो एक बानगी है. अभी तो काम शुरू करना है.

आपकी टिप्पणियों की प्रतीक्षा में - मनोज

गुरुवार, फ़रवरी 10, 2011

भारत रत्न और अन्य नागरिक सम्मान

भारतीय गणराज्य के चार नागरिक पुरस्कार हैं: भारत रत्न, पद्मश्री, पद्म भूषण और पद्म विभूषण. इनका वरीयता क्रम है पद्मश्री, पद्म भूषण, पद्म विभूषण और भारत रत्न.

भारत रत्न भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान है। यह सम्मान राष्ट्रीय सेवा के लिए दिया जाता है। इन सेवाओं में कला, साहित्य, विज्ञान या सार्वजनिक सेवा शामिल है। इस सम्मान की स्थापना २ जनवरी १९५४ में भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति श्री राजेंद्र प्रसाद द्वारा की गई थी। भारत में नागरिक सम्मान को नाम के साथ पदवी के रूप में प्रयुक्त नहीं किया जा सकता। प्रारम्भ में इस सम्मान को मरणोपरांत देने का प्रावधान नहीं था, यह प्रावधान १९५५ में बाद में जोड़ा गया। बाद में यह १० व्यक्तियों को मरणोपरांत प्रदान किया गया।

आजकल हर तरफ सचिन को भारत रत्न देने की बात चल रही है. सचिन को खेलों का सर्वोच्च सम्मान राजीव गाँधी खेल रत्न मिल चुका है. और सचिन विभूषण से भी नवाजे जा चुके हैं. भारत रत्न बहुत ही प्रतिष्ठित पुरुस्कार है. और कई बार राजनीति से प्रेरित रहा है. मेरे पास कई उदाहरण हैं राजीव गाँधी, MGR, गुलजारी लाल नंदा, अरुणा असाफ़ अली और मोरार जी देसाई. इन विभूतियाँ द्वारा किया गया कार्य सराहनीय है. साथ ही यह लोग भारत रत्न के लिए उपयुक्त नहीं हैं.

अगर हम सचिन को भारत रत्न की वकालत करते हैं तो कपिल देव को क्यों भूल जाते हैं. एक ऐसे समय में कपिल की टीम ने हमारे लिए विश्व कप जीता जब कोई सोच भी नहीं रहा था. अब अगर विश्व कप को पैमाना बनाते हैं तो अजीतपाल सिंह को भी मिलाना चाहिए. परन्तु कपिल देव और अजीतपाल सिंह को तो शायद पद्म विभूषण भी नहीं मिला (ज्ञानी लोग प्रकाश डालें).

मेरे हिसाब से सचिन को खेल रत्न मिलाना ही काफी है सचिन ने क्रिकेट के अतिरिक्त कुछ नहीं किया. वैसे ऐसा लिखने का कारण मेरा सचिन विरोधी होना नहीं है. मै भी सचिन का प्रसंशक हूँ. सचिन को देख कर मैंने सही कवर ड्राईव लगाना सीखा. यहाँ मैं बताना चाहूँगा, प्रकाश पादुकोण ने कभी कोल्ड ड्रिंक का विज्ञापन नहीं किया. उन्होंने बड़ी ही विनम्रता से कहा कि "कोल्ड ड्रिंक से सिवाय पाचन ख़राब होने के कुछ नहीं होता."

हमारे क्रिकेट भगवान कल तक पेप्सी बेचते थे अब coke को अच्छा कह रहे हैं. लेकिन साथ मे सचिन ने रक्तदान, पानी बचाने और पोलिओ की दवा पिलाने का विज्ञापन भी किया है. सचिन सिगरेट और शराब का विज्ञापन नहीं करते. यह उनकी महानता है. भई मैंने भी TVS Victor खरीदी थी सचिन के कारण. इसीलिए मै तो सचिन के लिए खेल रत्न और पद्म विभूषण की वकालत करूँगा.

दद्दा को भारत रत्न जरूर मिलाना चाहिए. दद्दा से मतलब है होंकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद. जिन्होंने १५ अगस्त के दिन भारत को बर्लिन ओलंपिक में स्वर्ण पदक दिलाया.

डर इस बात का है कि "भांडों को भारत रत्न न मिल जाये". भांडों से मेरा मतलब फ़िल्मी हस्तियों से है.

रविवार, फ़रवरी 06, 2011

बाबा रामदेव - एक क्रांतिकारी व्यक्तित्व

आज बाबा रामदेव के बारे में समाचार पढ़ा. बाबा जी मिस्र की अहिंसक क्रांति से प्रेरित हो कर काले धन के कारण एक अहिंसक क्रांति की बात कर रहे हैं.  (मूल समाचार को पढ़ने के लिए शीर्षक पर क्लिक करें.)
मैं बाबा रामदेव से पूर्णतः सहमत हूँ. देश के वर्तमान हालात में भारत को एक क्रांति की आवश्यकता है. काले धन के लिए ही नहीं आजकल के राजनैतिक परिदृश्य के लिए भी हम भारतीयों को क्रांति का श्रीगणेश करना होगा.
यह एक हास्यपद स्थिति ही है कि व्यापारियों के एक दल ने सरकार के नाम त्राहि माम का एक खुला पत्र लिखा है. व्यापारी वर्ग  तो अक्सर सुविधा शुल्क दे कर जल्दी से अपना काम जल्दी करने में विश्वास रखता है, आज वहि त्राहि माम कर रहा है. किसी भी देश में रिश्वत को बढ़ावा देने में इसी व्यापारी वर्ग का बहुत बडा हाथ होता है.
क्रांति का सूत्रधार आमआदमी ही हो सकता है, परन्तु उसका नेतृत्व एक ईमानदार, कर्त्वयानिष्ठ और नैतिक व्यक्ति के हाथ में होना चाहिए. साथ ही वह दूरदर्शी और चमत्कारिक व्यक्तित्व का स्वामी होना चाहिए. मेरे दृष्टिकोण में बाबा के अन्दर यह सारी खूबियाँ है.
उनके अन्दर जबरदस्त नेतृत्व क्षमता है. उनके असंख्य अनुयायी इस बात का प्रमाण है.

नोट: अभी इसमे और भी लिखने की आवश्यकता है. समय मिलने पर इसे पूरा करूंगा. पिछली कई बार से अपना वायदा नहीं निभा पाने का अपराधबोध है.
यह विषय इतना ज्वलंत है कि इस पर लिखना जरूरी है समय तो निकालना ही होगा......

मनोज

रविवार, जनवरी 16, 2011

मधुर वचन


मनुष्य की भाषा में माधुर्य का होना अति आवश्यक है. हमारे धर्म ग्रंथों में और संतों के उपदेशों में इसकी महत्ता का वर्णन मिलाता है. मीठी बोली से जटिल समस्या भी हल की जा सकती है. हमारी भाषा और हमारी वाणी भी हमारे व्यक्तित्व और व्यवहार का दर्पण है. कबीरदास जी ने कहा है कि:

"मधुर वचन है औषधि, कटु वचन है तीर|
श्रवण द्वार हौ संचरे, साले सकल सरीर||"

अर्थात मधुर वचन औषधि के सामान हैं, जो रोग का निवारण करते हैं. कटु वचन तीर की भांति ह्रदय को आघात पहुंचाते हैं. हमारे द्वारा बोले गए शब्द कान रूपी द्वार से शरीर रूपी घर में प्रवेश करके सारे शरीर को प्रभावित करते हैं.

कटु वाणी के प्रयोग का परिणाम बहुत भयंकर हो सकता है. द्रौपदी के द्वारा दुर्योधन को बोले गए कटु वचन महाभारत का एक कारण बने. इसका परिणाम कितना भयानक हुआ यह तो सर्वविदित है. जहाँ वाणी में माधुर्य होता है, वहीँ ज्ञान और विवेक भी होता है. वाणी में मधुरता, प्रियता और सत्यता के समन्वय से जीवन में आनंद मिलता है. हमें सदैव ऐसी वाणी और शब्दों से बचना चाहिए जो औरों को ठेस पहुंचाएं. कबीरदास जी ने आगे कहा है कि:

"ऐसी बानी बोलिए मन का आप खोय|
औरन को सीतल करे आपुह सीतल होय||"

तुलसी दास जी कहते हैं:

"तुलसी मीठे वचन ते, सुख उपजे चहुँ ओर|
वशीकरण यह मंत्र है, तजिये वचन कठोर||"

अर्थात सभी से मीठा बोलिए, इससे सुख मिलाता है. मधुर वचन ही वशीकरण मंत्र है. कठोर वचनों को त्यागिये.

कविवर रहीम कहते हैं:

"दौनों रहिमन एक से, जौ लौं बोलत नाहीं|
जान परत है काक पिक, ऋतु बसंत के माहिं||"

कौवा और कोयल जब तक बोलते नहीं, एक समान ही प्रतीत होते हैं. परन्तु ऋतुराज वसंत के आने पर कोयल की कुहू कुहू और कौवे की कांय-कांय दोनो का अंतर स्पष्ट कर देती है. आशय यही है कि मनुष्य को अपनी वाणी मधुर और कोमल रखनी चाहिए अन्यथा लोग उसका उपहास उड़ायेंगे और समाज में तयाताज्य रहेंगे. एक बड़े नेता से गाँधी जी ने उनकी भाषा के कारण हमेशा दूरी बनाये रखी, परन्तु गाँधी जी उनकी विद्वता के हमेशा कायल रहे. संस्कृत में एक श्लोक है जिसका अर्थ रहीमदास जी के उपरोक्त दोहे के समान है.

"काक: कृष्ण: पिक: कृष्ण:, का भेद पिकाकयो|
वसंत समय प्राप्ते, काक: काक: पिक: पिक:||"

मधुर वचन के महत्त्व पर कबीरदास जी के अन्य दोहे हैं:

कागा काको धन हरे, कोयल काको देय|
मीठे वचन सुनाय के, जग अपनो कर लेय||

आवत गारी एक है, उलटी होत अनेक|
कहे कबीर न उलटिए, रहे एक की एक||

- चारू के लिए लिखे गए निबंध से और मम्मी के पत्र का सार.........