गुरुवार, सितंबर 08, 2011

प्याली में तूफान: हत्यारों से सहानुभूति क्यों?


यह ब्लॉग मैंने दैनिक हिंदुस्तान के वेब साईट पर पढ़ा. सोचा कि सब के साथ बाँट लिया जाय. "प्याली में तूफान" के लेखक श्री शशि शेखर जी के हैं जोकि दैनिक हिन्दुस्तान के प्रधान संपादक हैं. विस्तार से जानने के लिए इधर क्लिक करें.
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मेरे एक पत्रकार मित्र हैं। जन्म और कर्म से सौ फीसदी भारतीय। पैदा हुए तमिलनाडु में और पले-बढ़े मध्य प्रदेश में। पिछले 30 साल से दिल्ली में काम कर रहे थे। घर में तमिल बोली जाती है। उनकी पत्नी को लगता रहा है कि मेरे पति तमिल कौम’ के प्रति जरूरत के मुताबिक समर्पित नहीं हैं। बरसों से दिल्ली के एक स्कूल में पढ़ाने के बावजूद वह अभी तक चोल और पाण्डय राजाओं के समय में प्रचलित तमिल राष्ट्रवाद की अवधारणा को मन में पालती-पोसती आई हैं। इस चिंतनशील परिवार में पिछले कुछ महीनों से अपने आग्रहों को लेकर बहस पनप रही है। क्यों?
हुआ यूं कि मेरे मित्र को चेन्नई से नई नौकरी का प्रस्ताव आया। उन्हें वहां जाकर न्यूज टीवी चैनल की एक श्रृंखला शुरू करनी थी। इससे पहले भी वह देश के नामचीन चैनलों में काम कर चुके हैं। उन्हें उस तबके का माना जाता हैजो सीना ठोंककर कहता है कि हम ओरिजिनल टीवी जर्नलिस्ट’ हैं। इस न्योते को पाने के बाद वह दुविधा में पड़ गए। दिल्ली में सालों-साल रहते हुए उन्हें लगने लगा था कि वह राष्ट्रीय पत्रकार’ हैं। ऐसे में उस तमिलनाडुजहां वह कभी रहे ही नहींलौटकर चैनल शुरू करना चुनौतीपूर्ण था। वह मेरे पास सलाह लेने आए। मेरा कहना था कि हम सबको अब महानगरों को छोड़कर अपनी-अपनी जमीन की ओर लौटना चाहिए। महानगरों का सिर्फ एक ही चरित्र होता है कि उनका कोई चरित्र नहीं होता। तरह-तरह के लोग रोजगार की तलाश में हर रोज यहां भीड़ बढ़ाते हैं और फिर उसी में गुम हो जाते हैं।
इसके बरखिलाफ मंझोले और छोटे शहरों में अब भी स्पंदन है। उनका अपना मुकम्मल चरित्र और चेहरा है। चाल भले ही थोड़ी सुस्त होपर देश की तरक्की में उनके योगदान को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। उन्हें मेरी बात जंच गई और कुछ ही दिन में वह चेन्नई जा बसे। पर फोन पर बातचीत जारी रही। कुछ महीने पहले जब वहां चुनावी बुखार तपिश की सीढ़ियां चढ़ रहा थाउनका फोन आया। खासे उत्तेजित थे। कहने लगे- सरयहां तो सब कुछ बदल गया है। हम जो तमिल अपने घर में बोलते हैंउस पर लोग भौंह चढ़ाते हैं।
राजनीतिज्ञों ने भाषा पर भी कब्जा जमा लिया है। पिछले 40 साल के दौरान स्कूली किताबों में इस तरह के शब्द जोड़ दिए गए हैंजिन्हें मुंह पर लाना हमारे यहां अच्छा नहीं माना जाता है।इसके बाद वह देर तक बताते रहे कि किस तरह तमिलनाडु के लोगों के आचार और व्यवहार में अंतर आया है और वह वहां पहुंचकर महसूस कर रहे हैं कि उनके अप्पा और अम्मा जिसमद्रास’ की बात किया करते हैंवह अतीत की अंधी गली में गुम हो चुका है। मैंने उन्हें समझाने के लिए कहा कि यह हाल तो उत्तर भारत का भी है। गांवकस्बे-शहर सब बदल गए हैं। उनका जवाब था कि अभी तक व्याकरण और बोली के तौर पर हिंदी सियासत का शिकार नहीं हुई। मुझे लगा कि दिल्ली का नॉस्टेल्जिया उन्हें सता रहा है और वह अति भावुक हो रहे हैं।
पिछले हफ्ते फिर फोन आया- अरे साहबयहां तो गजब हो रहा है। राजीव गांधी के बचे-खुचे हत्यारों को 9/11 को फांसी दी जानी हैपर कुछ लोग उबले पड़ रहे हैं। एक ने तो आत्मदाह तक कर लिया। अजीब बात है। सब जानते हैं कि ये एक पूर्व प्रधानमंत्री के हत्यारे हैंफिर भी राजनीति हो रही है। अब तक मैं जैसी पत्रकारिता करता आया हूंउतनी तटस्थता यहां के चंद स्वार्थी लोगों को नागवार गुजर सकती हैफिर भी मैं अपना काम करता रहूंगा।’ मैंने उनसे कहा कि इस मानसिकता पर एक लेख हिन्दुस्तान’ के लिए लिख भेजिए। उन्होंने हां कर दीपर बाद में एक एसएमएस आ गया कि व्यस्तता की वजह से लिख पाना संभव नहीं है। यह एक नए और 24 घंटा खबर उगलने वाले संपादक की विवशता थी या वह आवेगमयी भावना का शिकार बनने से डर रहे थे।
जो भी होदो दिन बाद खबर आ गई कि वहां के हाईकोर्ट ने फांसी पर आठ हफ्ते के लिए रोक लगा दी है। इस बार मैंने उनको फोन कर पूछा कि इस फैसले से आपको राहत मिली होगी?कम-से कम कुछ हफ्ते आप अपनी नैतिक ऊहापोह से बचे रहेंगे। वह हंसते हुए आगे बोले- यहां तो हर ओर खुशी का आलम है।’ मैं फोन काटने के बाद देर तक सोचता रहा कि जब भी कोई आतंकवादी हमला होता हैतो लोग समूची व्यवस्था को लचर करार दे देते हैं। कोई हमारे लोकतंत्र को लिजलिजा बताता हैतो किसी की आग उगलती हुई जुबान पर सान चढ़े हुए शब्द होते हैं। हमलावर अंदाज में आम आदमी पर इन्हें उगलते हुए नेतागण भूल जाते हैं कि लोगों के दिलों पर गहरे घाव भी हो सकते हैं। पर जब आतंकवादियों को फांसी देनी होती हैतो इस तरह के लोग बिलों में दुबक जाते हैंउलटबांसियां बोलने लगते हैं। सियासत का यह दोमुंहापन खतरनाक है। दुर्भाग्यतमिलनाडु इसका अकेला उदाहरण नहीं है।
इन पंक्तियों को लिखते समय ही खबर आई कि पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने राष्ट्रपति को खत लिखा है। वह चाहते हैं कि देविंदरपाल सिंह भुल्लर का मृत्युदंड मुआफ कर दिया जाए। ये वही भुल्लर हैंजो 1993 में युवक कांग्रेस के दफ्तर के सामने कार में विस्फोट कराने के षड्यंत्र में शामिल थे। आतंकवाद का मुखरता से विरोध करने वाले मनिंदरजीत सिंह बिट्टा की हत्या के लिए प्रायोजित इस हमले में आधा दर्जन से अधिक लोग मारे गए थे। अपनी गिरफ्तारी के बाद से पिछली 26 मई, 2011 तक निचली अदालत से लेकर राष्ट्रपति तक भुल्लर अपने सभी कानूनी हक आजमाकर देख चुका है। हर दरवाजे से दुत्कारे जाने के बाद राजनेता उसे बचाने के लिए आगे आए हैं। बादल से पहले अमरिंदर सिंह उसके प्रति अपनी सहानुभूति जगजाहिर कर चुके हैं। ये वही अमरिंदर हैंजो कांग्रेस की नुमाइंदगी करते हैं और पंजाब के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। क्या वह राजीव गांधी के हत्यारों के प्रति भी यही रवैया प्रदर्शित करना चाहेंगे?
जब तमिलनाडु और पंजाब में ऐसी हलचल मची होतो जम्मू-कश्मीर के हुक्मरां कैसे चुप रह सकते हैंउमर अब्दुल्ला भी चाहते हैं कि अफजल की फांसी के फैसले पर पानी फेर दिया जाए। अमरिंदर सिंह की तरह ही उमर अपने आजाद खयालों के लिए जाने जाते हैं और अक्सर कट्टरपंथियों की नाराजगी झेलते हैं। पर सियासत के ये चैंपियन अलग मिट्टी के बने होते हैं। अपनी निजी जीवनशैली के चलते भले ही वे किसी से भी टकरा जाएंपर जब वोटों का सवाल आता हैतो उनमें और किसी अतिवादी में कोई अंतर नहीं रहता।
तय है। इस मानसिकता को बदले बिना हम कभी आतंकवाद से जीत नहीं पाएंगे। हांएक सुकून जरूर है। पंजाब और कश्मीर के इन उदाहरणों के जरिये मैं अपने मित्र को यह समझाने में कामयाब हुआ कि राजनीति और राजनेताओं के मामले में कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है। वह अब शांत और स्थिर हैं।
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मेरे भी एक मित्र हैं, मुंबई में पलेबढ़े, धाराप्रवाह में हिंदी बोलते हैं. हिंदी के आम अलंकारों पर भी शानदार पकड़ है. अपनी मातृभूमि से अगाध प्रेम है. भाषा के मामले में बिलकुल एक जैसे विचार रखते हैं वो भी. एक दिन ऐसी ही चीजें उन्होंने मुझे बतायी थी. वो तमिल सिनेमा को भी इसमे शामिल करते हैं. विशुद्ध गर्वीले भारतीय हैं.
ऐसे लोगों का दर्द मैं समझ सकता हूँ. राजनिति अब देश को तोड़ने में लग गयी है. राजनिति राष्ट्रवाद को  क्षेत्रवाद के पैरों तले कुचलने में लगी है. जनता भोली है. पर दोस्तों भाला बनाते दें नहीं लगेगी.
कई दिनों से लिखना चाहता था. आवेगमयी भावुक विरोध की संभावना को मद्देनजर रखते हुएमैं भी नहीं लिख पाया था. पर आज अपने को रोक नहीं पाया. व्यवाहरिक बनाने की चाह में अपने राष्ट्रवाद को दबा रहा था. परन्तु अन्दर ही अन्दर चुभता था कुछ. आज लिख कर अच्छा लग रहा है. 
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