इस वीराने रेगिस्तान मे एक बरस बीतने वाला है. शरीर ही नहीं आत्मा को भी खुश्क कर देने वाली गरमी मे एक साल बिता दिया मैंने. एक साल बीत गया, यकीन नहीं होता, जिंदगी यों बीतने लगेगी, सोचा ही नहीं था. कहाँ मैं हड्डियों को कपां देने वाली वेरमोंट की वादियों मे था तो इस साल दोहा (क़तर) के रेगिस्तान मैं. अब आगे कहाँ जाना है, भगवान ही जाने.
पता है सावन आ गया है. कल हरियाली तीज थी. यहाँ तो बादल दिखते ही नहीं. हर तरफ गरमी और उमस. कल प्रवीण और पार्तिबान के सौजन्य से आलू के पकोडियाँ खाई. परन्तु बिना बारिश और चाय के वो बात नहीं बनी. कल फिर से एक फिल्म "रात गयी बात गयी" देख डाली. मुझे ये फिल्म पसंद है परन्तु बाकि लोगों (प्रवीण और पार्तिबान) के लिए समस्या हो गयी.
उमस भरी गर्मी से यहाँ घरों मैं क़ैद होकर रह गये है. घर, ऑफीस और कार सब AC है. भारतीय सामान भी मिल जाता है. यहाँ शाकाहारी रेस्टोरेंट भी है. "मुंबई चाट" पर खाते हुए चारू ने कहा था "पापा यहाँ तो इंडिया जैसा स्वाद है. कहीं कुछ कमी नहीं है, परन्तु आजकल गरमी के कारण ऐसा लगता है जैसे सोने के पिंजरे मैं क़ैद हो गया हूँ. भारत की बहुत याद आती है. बच्चों के साथ बारिश में भीगना. ऑफीस से बाइक पर भीगते हुए आना. वो हापुड़ से दिल्ली बाइक चलाना याद आता है.
फसेबुक पर विवेक सिंह और अतुल गर्ग का कॉमेंट पढ़ा. और राजेश प्रसाद त्रिपाठी को मिस किया. उसे फोन किया, तो मोबाइल स्विच ऑफ था.
श्री अटल बिहारी वाजपयी जी की कविता याद आती है......
एक बरस बीत गया
झुलसता जेठ मास
शरद चाँदनी उदास
सिसकी भरते सावन का
अंतर्घट रीत गया
एक बरस बीत गया
संखीचों मे सिमटा जग
किंतु विकल प्राण विहग
धरती से अंबर तक
गूँज मुक्ति गीत गया
एक बरस बीत गया
पथ निहारते नयन
गिनते दिन पलछिन
लौट कभी आएगा
मन का जो मीत गया
एक बरस बीत गया
1 टिप्पणी:
:)
Sahi kaha ek dum Bhar ja kar sab kuchh mil jata hai, har tarha ka aaram milta hai par nahin milti to apne desh jaisi masti/ajadi- kuchh bhi karne ki.
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