गुरुवार, सितंबर 30, 2010

काँच की बरनी और दो कप चाय

जीवन में जब सब कुछ एक साथ और जल्दी-जल्दी करने की इच्छा होती है, सब कुछ तेजी से पा लेने की इच्छा होती है, और हमें लगने लगता है कि दिन के चौबीस घंटे भी कम पड़ते हैं, उस समय ये बोध कथा, "काँच की बरनी और दो कप चाय" हमें याद आती है।

दर्शनशास्त्र के एक प्रोफ़ेसर कक्षा में आये और उन्होंने छात्रों से कहा कि वे आज जीवन का एक महत्वपूर्ण पाठ पढाने वाले हैं...
उन्होंने अपने साथ लाई एक काँच की बडी़ बरनी(जार) को टेबल पर रखा और उसमें टेबल टेनिस की गेंदें डालने लगे और तब तक डालते रहे जब तक कि उसमें एक भी गेंद समाने की जगह नहीं बची... उन्होंने छात्रों से पूछा-क्या बरनी पूरी भर गई?
हाँ... आवाज आई...
फ़िर प्रोफ़ेसर साहब ने छोटे-छोटे कंकर उसमें भरने शुरु किये। धीरे-धीरे बरनी को हिलाया तो काफ़ी सारे कंकर उसमें जहाँ जगह खाली थी, समा गये, फ़िर से प्रोफ़ेसर साहब ने पूछा, क्या अब बरनी भर गई है।
छात्रों ने एक बार फ़िर हाँ... कहा।
अब प्रोफ़ेसर साहब ने रेत की थैली से हौले-हौले उस बरनी में रेत डालना शुरु किया, वह रेत भी उस जार में जहाँ संभव था, बैठ गई अब छात्र अपनी नादानी पर हँसे... फ़िर प्रोफ़ेसर साहब ने पूछा, क्यों अब तो यह बरनी पूरी भर गई ना?
हाँ.. अब तो पूरी भर गई है.. सभी ने एक स्वर में कहा..
सर ने टेबल के नीचे से चाय के दो कप निकाल कर उसमें की चाय जार में डाली, चाय भी रेत के बीच स्थित थोडी़ सी जगह में सोख ली गई...

प्रोफ़ेसर साहब ने गंभीर आवाज में समझाना शुरु किया–
इस काँच की बरनी को तुम लोग अपना जीवन समझो....
टेबल टेनिस की गेंदें सबसे महत्वपूर्ण भाग अर्थात भगवान, परिवार, बच्चे, मित्र, स्वास्थ्य और शौक हैं,
छोटे कंकर मतलब तुम्हारी नौकरी, कार, बडा़ मकान आदि हैं, और रेत का मतलब और भी छोटी-छोटी बेकार सी बातें, मनमुटाव, झगडे़ है..
अब यदि तुमने काँच की बरनी में सबसे पहले रेत भरी होती तो टेबल टेनिस की गेंदों और कंकरों के लिये जगह ही नहीं बचती, या कंकर भर दिये होते तो गेंदें नहीं भर पाते, रेत जरूर आ सकती थी...
ठीक यही बात जीवन पर लागू होती है... यदि तुम छोटी-छोटी बातों के पीछे पडे़ रहोगे और अपनी ऊर्जा उसमें नष्ट करोगे तो तुम्हारे पास मुख्य बातों के लिये अधिक समय नहीं रहेगा... मन के सुख के लिये क्या जरूरी है ये तुम्हें तय करना है। अपने बच्चों के साथ खेलो, बगीचे में पानी डालो, सुबह पत्नी के साथ घूमने निकल जाओ, घर के बेकार सामान को बाहर निकाल फ़ेंको, मेडिकल चेक-अप करवाओ... टेबल टेनिस गेंदों की फ़िक्र पहले करो, वही महत्वपूर्ण है... पहले तय करो कि क्या जरूरी है... बाकी सब तो रेत है..
छात्र बडे़ ध्यान से सुन रहे थे.. अचानक एक ने पूछा, सर लेकिन आपने यह नहीं बताया कि "चाय के दो कप" क्या हैं? प्रोफ़ेसर मुस्कुराये, बोले.. मैं सोच ही रहा था कि अभी तक ये सवाल किसी ने क्यों नहीं किया...
इसका उत्तर यह है कि, जीवन हमें कितना ही परिपूर्ण और संतुष्ट लगे, लेकिन अपने खास मित्र के साथ चाय पीने की जगह हमेशा होनी चाहिये।

यह बोध कथा मुझे मेरे मित्र ने भेजी, और अब कुछ के साथ चाय पीना याद आ रहा है. शायद आप लोगों को भी अपने अतीत में ले जाए.

आपका
मनोज

शनिवार, सितंबर 04, 2010

सीख

आज बहुत दिनों बाद चिठ्ठा लिखने बैठा. परन्तु सीधा ब्लॉग पर न डालते हुए, google.com/transliterate/ पर टाइप करने लगा. पूरा लिख चुका था पर backspace ने सब गुड गोबर कर दिया. Correction के लिए backspace दबा दिया और पूरा पेज ही मिट गया. इससे यही सीख मिली की अब जब भी लिखुंगा, सीधा ब्लॉग पर ही लिखुंगा. इसमे पोस्ट स्वतः सुरक्षित होती रहती है.

आज के लिए मैं माफ़ी चाहूँगा. वैसे मेरा एक सप्ताह तो मेरी बीमारी में चला गया, और पिछले तीन चार दिन ऐसे ही मटरगश्ती में निकल गए. मुझे शिकायते मिलने लगी है. एक साहब ने कह दिया है कि अब मेरे चिठ्ठे पर धूल चढ़ने लगी है.

तो अब आज के छोटे से इस लेख से धुल हटाई है. कल आपके लिए हाजिर होगा मेरा धुल का फूल यानी एक नयी रचना, जो समर्पित होगी उन लोगों के लिए जिन्होंने अपना कुछ वक़्त छात्रावास में बिताया है. मैं इसे हिंदी का फूल बनाने का भरसक प्रयास करूंगा. पाठक इसे हिंदी का फूल ही मानेंगे या वो खुद अंग्रेजी का फूल बनेंगे, यह तो पोस्ट पढ़ कर ही पता चल सकेगा.

इसी के साथ मैं अपने प्यारे बिस्तर के लिए प्रस्थान करता हूँ. इन्तजार रहेगा आपकी खट्टी-मीठी टिप्पणियों और चिठ्ठियों का, कड़वी भी चलेंगी, जीवन की सच्चाई जैसी.

मनोज

शुक्रवार, अगस्त 20, 2010

विचार और विचार प्रवाह

समय बिताने के लिए आजकल चिठ्ठेबाजी शुरू कर दी है. बहुत दिनों से मेरा लिखने का मन करता था. मेरे दिमाग में बहुत सारे विचार आते थे. परन्तु लेखन तो लेखन है, इतना आसां नहीं है. विचार तो हमेशा आते रहते है. विचारो का आना तो spontaneous है. spontaneous शब्द को पहली बार भौतिक विज्ञान में पड़ा था. शाब्दिक अर्थ तो मैंने तभी ढूंढ़ लिया, पर इस शब्द का मर्म समझाने मे बहुत टाइम लग गया. अंत मे मुझे लगता है spontaneous का शाब्दिक अर्थ तो है पर इस जैसा शब्द, हिंदी मे नहीं है. जैसे Religion, इसका भी अर्थ सटीक नहीं है. बस धर्म को Religion का पर्याय बना दिया गया है. हमे हिंदी मे Religion के लिए एक नया शब्द लाना चाहिए. और जो धर्म शब्द का असली अर्थ Religion से पहले था वही बना रहना चाहिए. धरति सः धर्मः, अर्थात धर्म वो है जो आप धारण करते है. जो आप करते है और करने की ठान लेते हैं. ऐसे ही spontaneous का शाब्दिक अर्थ स्वाभाविक या स्वतः उतना सटीक नहीं लगता. "spontaneous process" के लिए "स्वाभाविक प्रक्रिया" मे वजन नहीं आ पाता. मुझे एक नए शब्द की उत्पत्ति की जरूरत लगती है. इस तरह से हिंदी का शब्दकोष भी व्यापक होगा. ठीक उसी तरह जैसे इंग्लिश का. इंग्लिश वाले अलग अलग भाषाओँ से शब्द लेते हैं और नए शब्दों की रचना भी करते रहते है. कुछ दिन पहले काफी सारे हिंदी शब्दों को इंग्लिश शब्दकोष मे स्थान मिल गया है. जैसे अँगरेज़, फिरंगी, मेमसाब, दूध, दही. इससे इंग्लिश ज्यादा व्यापक हुई है. हिंदी वहीँ खडी है.

खैर मैं विषय से काफी अलग चला गया. वापस विषय पर आता हूँ. विचार तो एक spontaneous process है. विचार जितनी तेजी से आते है उतनी तेजी से ही चले भी जाते है. चले जाने का तात्पर्य विचार के लोप हो जाने से नहीं है. नया विचार पुराने विचार की जगह ले लेता है. दिमाग को नयी खुराक मिल जाती है. इन तेजी से आते जाते विचारों को कलमबद्ध करना उतना सरल नहीं है. आखिर मन की गति तो प्रकाश से भी ज्यादा तेज है. और इसे हिंदी मैं कम्पूटर पर टाइप करना बहुत ही टेढ़ी खीर है. कलमबद्ध को टाइप करने के लिए मुझे बहुत टाइम लगा गया. विचारों को कागज पर उतारना शायद आसान हो सकता है. पर हिंदी मैं ब्लॉग्गिंग बहुत कठिन है. टाइपिंग को ठीक करते करते, विचार क्रम टूट जाता है. चिठ्ठा लिखने के लिए बहुत ही एकाग्र होने की आवश्यकता है. आपको अपने विचार को जाने नहीं देना है और नए विचार के मोह मैं भी नहीं पड़ना है. बहुत मुश्किल हो रही है.

मेरे शुरूआती चिठ्ठों मे और अभी के चिठ्ठों मे फर्क नजर आने लगा है. भाषा परिमार्जित हो रही है. एक अन्य बात, वर्तनी(Spelling) की अशुद्धि एक सामान्य समस्या है. इसमे लेखक का शाब्दिक ज्ञान उतना जिम्मेवार नहीं है जितना ये टाइपिंग सॉफ्टवेर. अब कुछ दिन पहले तक मैं www.quillpad.com use कर रहा था. उसमे मुझे पाठिका टाइप नहीं हो पाया. पाठइक लिख कर काम चलाया, फिर गूग्गल का transliterate use करना शुरू किया है. www.quillpad.com से कुछ बेहतर है. पर मुश्किल अभी भी है. दिल्ली अभी दूर है भाई.

विचारों को नियंत्रित करते हुए लिखने मे मजा तो आ रहा है. साथ ही विचारों पर पकड़ भी बनने लगी है. लिखने मे बहुत टाइम लगता है. लिखने की गति पहले से बढ चुकी है.

अब विदा लेता हूँ.
- मनोज

बुधवार, अगस्त 18, 2010

जिकरीत भ्रमण

अथातो घुमक्कड़ - जिज्ञासा, हिंदी साहित्यिक निबंध, बारहवीं कक्षा में पढ़ा था. पहिले तो शीर्षक ही बहुत भयानक सा लगा, उस पर लेखक का नाम राहुल संकृत्यायन. फिर भी पढ़ तो डाला ही था. उस समय निबंध में लिखा एक शेर ही समझ आया था.

"सैर कर दुनियाँ की गाफिल, जिन्दगानी फिर कहाँ?
जिन्दगी गर कुछ रही तो नौजवानी फिर कहाँ" - इस्माइल मेरठी

आजकल घुमक्कड़ी करने का मन करता है. और ईश्वर की दया से मौका मिल ही जाता है. अब उस निबंध का मर्म समझ आने लगा है.

और इस बार तय किया हम तीनो ने कि जिकरीत चलते हैं. तीन - तिलंगे, तीन फोर्स्ड बेचलर्स. प्रवीण राठी, नंदकुमार और मैं. इस बार नंदकुमार पहले से ज्यादा तैयारी के साथ था. खाने पीने के सामान की लिस्ट लेकर पहुच गए Carrefour और उसमे सबसे जरूरी था हवा का दबाव नापने के लिए gauge. Gauge का लिस्ट में होना नन्द की तैयारी को साबित कर रहा था. इस बार उसने नेट पर काफी जानकारी इक्कठी की थी. मॉल में Gauge को मुझे ढूँढना पडा था. क्योंकि वहां पर तैनात किसी कर्मचारी को नहीं मालूम था Gauge क्या है. और उन सभी ने घोषणा कर दी कि यहाँ नहीं है. पर उनके चहरों से साफ़ लगा था कि वो नहीं जानते कि हमें क्या चाहिए था. मैंने gauge को अल-मीरा में देखा था. (यहाँ अल-मीरा का अभिप्राय अल-मीरा नाम के मॉल से है ने कि अलमारी से). और कुछ प्रयास से मैंने ढूंढ ही लिया. इसके बाद तो हमारे टिपिकल जाट भाई ने, जोकि गलतफहमी से सॉफ्ट परसन माने जाते हैं, उन सभी कर्मचारियों से उनकी इस भारी भूल को मनवा लिया. सही था. ऐसे कैसे एक कर्मचारी को अपनी ही दुकान के बारे में ही नहीं मालूम.

अरे हाँ, इस बार हम चार थे पार्तिबान भी था हमारे साथ.

काफिला चल पड़ा. गाइड था गूगल मैप. जोकि हमेशा की तरह नन्द के हाथ मैं था. जकरीत दुखान (दुखान एक शहर का नाम है) से करीब १० किमी पाहिले ही है. इस यात्रा में हमारे गंतव्य काफी हिस्सा उबड़ खाबड़ रास्ते से था. और ध्यान देने वाली बात है कि हमने यात्रा रेत पर नहीं बलुआ ठोस जमीन पर की और हमारी तैयारी रेगिस्तान के लिए थी. वैसे इससे हमें कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था.

दूर दूर तक वीराना, आदमी न आदमी की जात. मैं अपने तथाकथित* प्रिय Coke कि टिन के साथ था. परन्तु सड़क जोकि नहीं थी, ने Coke पीना मुश्किल कर दिया. धचाकियों ने सारा खाना पचा दिया. प्रवीण भाई ने driving सीट संभाली हुई थी, सो हम रास्ते पर न चल कर रास्ते के समांनातर चलते रहे. हम इस बार रास्ता नहीं भूले, यह हमारी उपलब्धि थी. परन्तु हम अपने गंतव्य पर गए ही नहीं. इस बार हमने जान बूझ कर पुराने फिल्म सिटी जाने का फैसला किया. इस रेगिस्तान के रास्ते पर चलते हुए हमारे मार्गदर्शक बने लकड़ी के डंडे. जोकि सड़क के एक और गाड़ दिए गए थे.

रेत में drive करते हुए गाड़ी के टायर रेत में गड जाते हैं. रेत में drive करना भी एक कला है. रेत में आप हवा का दबाव १२ psi या पौंड कर दे. अब टायर आसानी से नहीं फसेगा. मुलायम रेत पर न जाए. मुलायम और सूखी रेत तो दुश्मन है गाड़ी की. अपने साथ दो लकड़ी के तख्ते ले ले, बहुत काम आते हैं. पानी भरपूर मात्रा में होना चाहिए. सेडान कार तो भूल कर भी ना ले जाये. यह एक अच्छी SUV होनी चाहिए. ground क्लेअरांस जितना ज्यादा हो अच्छा है. अगर आपके पास pick-up ट्रक है तो बढ़िया है.

बाकि कहानी फोटों की जबानी. फोटो जोरदार हैं. मेरे facebook अकाउंट पर फोटो मैं देखे. मेरे एक मित्र ने बताया है कि फोटो लिखने से ज्यादा वजनदार हैं. अब फोटो पर captions डाल कर लेख पूरा करना है.

फोटो देखने के लिए मुख्य शीर्षक पर क्लिक करें.
manoj.hapur@yahoo.com मेरा facebook अकाउंट ID है.

*तथाकथित इसलिए की बस यूंही एक बार नन्द को बोल दिया था और एक दो अवसर पर Coke को प्राथमिकता दे दी. बस फिर क्या था, नन्द ने Coke को मेरा प्रिय पेय घोषित कर दिया. मैंने भी इसका कभी प्रतिकार नहीं किया. और Coke मेरा प्रिय पेय बना गया.

-मनोज

रविवार, अगस्त 15, 2010

मैं और इंटरनेट


जब भी खाली होता हूँ. इंटरनेट से जुड़ जाता हूँ. अकेले में यह एक बहुत अच्छा दोस्त है. याहू, gmail, orkut aur facebook लॉग इन हो जाओ, Wikipedia पढो. सही वक़्त गुजरता है. दुनिया में लोगों से बात करो. लेकिन यही एक दोस्त है, अब तक शायद ऐसे ना सोचा था. कल जब फीस जमा ना करने के कारण इंटरनेट बंद था, तब लगा, जैसे अब कुछ नहीं बचा था. परन्तु ऐसा अकेले मेरे साथ ही ना था. प्रवीण राठी भी ऐसे ही परेशान था. मैने उसे पुस्तक पढ़ते तभी देखा है जब उसके पास समय बिताने के लिए कुछ ना बचा हो. नन्दकुमार तो छुट्टियों मे भारत चला गया है, अब वो फ्लैट मे अकेला रहा गया है. और मैं, मैं तो ६-७ महीनो से पूरे फ्लैट में अकेला ही हूँ. एक महीना तो बहुत ही मजेदार बीता था. जब बच्चे अपनी गर्मियों की छुट्टियाँ मनाने और ज्यादा गरम देश पहुँच गए. दिगर बात यह है कि बच्चो ने यहाँ काफी एन्जॉय किया था.

क़तर का समय कुछ एसा है क़ि भारत मे बात करना इतना आसान नहीं है. जब द्फ्तर के बाद मैं खाली हूँ, तो औरों के पास काम है. पापा तो हमेशा से जल्दी सोते हैं, रात के ८:०० बजे तो गहरी नींद में होते हैं. बच्चों के पास असाइनमेंट्स हैं, पत्नी के पास बच्चे हैं. दो शैतानों को संभालना आसान नहीं है.

ऐसे में खाना बनाना समय बिताने का अच्छा तरीका है. कुछ सब्जी बनाने लगा हूँ, ठीक से आती नहीं है. पर कुछ दोस्त तारीफ कर देते हैं. अगर सही तरीके से देखा जाए तो मैं उसी तरीके के दाल बनता हूँ जैसे मिक्स सब्जी. रोटी पर हाथ साफ़ किया पर कामियाबी अभी कोसों डोर है. रोटी गोल तो होती नहीं. पर अब फूल जाती है . कहीं से जल जाती है और कहीं से कच्ची रह जाती है. मतलब जो रोटी की आकृति बनती है वो रोटी कम U.P. का तो नहीं, राजस्थान का नक्शा ज्यादा लगाती है. पर taste खालिस रोटी का आता है. जोकि आकार और दिखने से ज्यादा महत्वपूर्ण है.

विकिपीडिया पढ़ते-पढ़ते बोर हो चुका हूँ. गाने सुनते-सुनते भी बोरियत होने लगी है.

सब टीवी का लापतगंज अच्छा लगता है. कछुआ चाचा, मुकुन्दी गुप्ता, मिसरी चाची और इन्दुमति बढ़िया Character है. कभी-कभी मुकुन्दी का रोल कमजोर कर दिया जाता है. जो समझ से परे है. मामा से पिताजी की मज़ाक कुछ ज़्यादा ही उड़वा दी गयी है. जोकि सीरियल को लोकप्रिय बनाने का तरीका हो सकता है. परंतु बहुत ही वाहियात लगता है. कोई अपने पिता का मज़ाक कैसे बना सकता है. मिसरी चाची की सरलता मान को छू जाती है. मुझे अपनीं अम्मा(दादी) की याद दिला देती है. बस जिंदगी फिर चल पड़ती है. क्योंकि तब तक रात हो जाती है. नींद अपने आगोश मे ले लेती है. अगले दिन ओफिस ख़तम होने तक अकेलापन कोसों दूर चला जाता है.
आगे आने वाले दिन बहुत ही बिज़ी होने वाले हैं. HP इंजिनियर से आज बात हो गयी है. शायद मेरी शामें भी site ऑफीस ही मे गुजरेंगी. तब मज़ा आएगा. मैं, मेरे सर्वर और चारों तरफ हरा समुंदर (मुझे तो हरा ही दिखता है). मन बहुत उत्सुक है बहुत दिन हो गये Server hardware के साथ काम करते हुए. बस इसी आशा मे.
अब अगले ३ घंटे व्यस्त रहेंगे. बाल कटाने हैं, नहाना होगा खाना बनाना है. आज रोटी बनाई जाएगी.
चलो भाई अपने पास तो काम आ गया. विदा फिर मिलेंगे.
-मनोज

शनिवार, अगस्त 14, 2010

मैं और कसप....



http://www.abhivyakti-hindi.org/ पर मनोहर श्याम जोशी जी को ढूँढ रहा था. और मैं उनका नाम ही भूल गया. फिर उनके कालजयी हिन्दी सीरियल "बुनियाद" ने मुझे रास्ता दिखाया. उनके विकिपीडिया पेज पर कसप मिल गया. वहाँ से गूगल देवता के सहारे पहुँच गया एक और ब्लॉग पर. मनीष जी ने बहुत ही बढिया चर्चा की है. वहाँ से मैं यादों के समुंदर मैं गोते लगाने लगा. मेरा बी ई का सेकेंड सेम, १९९२ की बातें है यह. जब कसप से सामना हुआ.

यह उपन्यास मैने कई बार पढ़ा है. पहले कॉलेज की लाइब्ररी से लेके पढ़ा था. उसे छुट्टियों मैं घर ले गया और फिर आते वक़्त घर पर रहा गया. पुस्तक की कीमत से ज़्यादा फाइन हो गया था. इसे घर से रजिस्ट्री से मँगाया गया. फाइन माफ़ करने के लिए डा. सचान से मिन्नतें की गयी पर फाइन पूरा ही भरना पड़ा. मुझे तो इश्क हो गया था कसप से. फिर इसकी चर्चा होती थी राजेश प्रसाद त्रिपाठी से.

कॉलेज के बाद और शादी से कुछ महीने पहिले खरीद ही लिया था बाज़ार से. सोचा पत्नी के साथ पढ़ा जाएगा. पढ़ा भी पर उन्हें इतना पसंद नहीं आया. वो श्रीमति जोशी जैसी पाठिका नहीं है. और इसके बाद नौकरी ने कुछ ही दिनों बाद सहित्य को पूर्ण विराम लगा दिया.

मुझे इसमे जिलेंबू बहुत पसंद आया था. बेबी का अल्हड़पन और डी डी का डरपोक प्यार....... शीबो शीबो वाला प्रकरण हिला देता है.

यह मेरी प्रिय पुस्तक है. सोचता हूँ इस बार भारत आने पर अपनी कुछ किताबें लेके आऊं, कसप, गीता और प्रेमचंद की कुछ किताबें.

-मनोज कुमार शर्मा, दोहा, क़तर

शुक्रवार, अगस्त 13, 2010

कॉमनवेल्थ क्या है?


भाई लोगों बात ऐसी है के जिन देशों से ब्रिटेन ने कॉमन तौर पर वेल्थ लूटी थी, उन्हे कॉमनवेल्थ देश कहा जाता है। भारत में तो इन   ब्रिटिशरों ने बहुत सालों तक बहुत लूट मचायी थी। सो भारत एक सीनियर कॉमनवेल्थ देश है। वैसे भी हमे सिनिओरिटी बहुत पसंद है.

लगे हाथ यह भी समझ लो: 

कॉमनवेल्थ गेम्स का प्रयोजन क्या है?

तमाम देश के आम आदमी के लिए ये संदेश है कि हे मूरख, तू समझता है कि तेरे देश के नेता ही लुटेरे हैं। नहीं, इनसे पहले ब्रिटिशर्स कॉमन तौर पर इन देशों में लूट मचा चुके थे। यानी जब भारत वर्ष के नेता अपने देश को ही लूटने काबिल न हुए थे, तब ब्रिटिशर्स दुनिया-जहां को लूट रहे थे। ब्रिटिशर्स अब के नेताओं से कितने आगे थे, ऐसी प्रेरणापद बातें कहने के लिए कॉमनवेल्थ का आयोजन किया जाता है।

तो हमारे काबिल भारतीय अपनों को ही लूट कर कॉमनवेल्थ की प्रेरणाशाली परंपरा को आगे बढा रहे है.

एक छोटा सा जोक, दिल पर मत लेना भाई......