सोमवार, सितंबर 23, 2013

कुछ लघु कवितायें


मेरी थकन उतर जाती है


हारे थके मुसाफिर के चरणों को धोकर पी लेने से

मैंने अक्सर यह देखा है मेरी थकन उतर जाती है ।

कोई ठोकर लगी अचानक, जब-जब चला सावधानी से

पर बेहोशी में मंजिल तक, जा पहुँचा हूँ आसानी से

                                       - रामावतार त्यागी (Ram Avtar Tyagi)

वसुधा का नेता कौन हुआ? (रश्मिरथी)


सच है, विपत्ति जब आती है,

कायर को ही दहलाती है,

शूरमा नहीं विचलित होते,

क्षण एक नहीं धीरज खोते,

विघ्नों को गले लगाते हैं,

काँटों में राह बनाते हैं।

                                - रामधारी सिंह दिनकर (Ramdhari Singh Dinkar)

सोमवार, मई 13, 2013

एक ही शेर के तीन रूप


लीक-लीक कायर चलें, लीकहिं चले कपूत।
लीक छोड़ तीनों चलें - शायर सिंह सपूत।।

लीक-लीक चींटी चलें, लीकहिं चले कपूत।
लीक छोड़ तीनों चलें - शायर सिंह सपूत।।

लीक-लीक गाड़ी चलें, लीकहिं चले कपूत।
लीक छोड़ तीनों चलें - शायर सिंह सपूत।।

एक ही शेर के तीन रूप, मुझे पहलावाला ज्यादा असरदार लगा।

शुक्रवार, अप्रैल 19, 2013

मन कहीं भी रहे पर डिगेगा नहीं

डॉ विष्णु सक्सेना की एक कविता......

रेत पर नाम लिखने से क्या फायदा, एक आई लहर कुछ बचेगा नहीं।
तुमने पत्थर सा दिल हमको कह तो दिया पत्थरों पर लिखोगे मिटेगा नहीं।
    मैं तो पतझर था फिर क्यूँ निमंत्रण दिया
    ऋतु बसंती को तन पर लपेटे हुये,
    आस मन में लिये प्यास तन में लिये
    कब शरद आयी पल्लू समेटे हुये,
तुमने फेरीं निगाहें अँधेरा हुआ, ऐसा लगता है सूरज उगेगा नहीं।
    मैं तो होली मना लूँगा सच मानिये
    तुम दिवाली बनोगी ये आभास दो,
    मैं तुम्हें सौंप दूँगा तुम्हारी धरा
    तुम मुझे मेरे पँखों को आकाश दो,
उँगलियों पर दुपट्टा लपेटो न तुम, यूँ करोगे तो दिल चुप रहेगा नहीं।
    आँख खोली तो तुम रुक्मिणी सी लगी
    बन्द की आँख तो राधिका तुम लगीं,
    जब भी सोचा तुम्हें शांत एकांत में
    मीरा बाई सी एक साधिका तुम लगी
कृष्ण की बाँसुरी पर भरोसा रखो, मन कहीं भी रहे पर डिगेगा नहीं।

प्रस्तुतकर्ता - मनोज कुमार शर्मा

शुक्रवार, अप्रैल 05, 2013

मुझमें क्या है सिवा तुम्हारे....

डॉ कुमार विश्वास की एक कविता:

मुझमें क्या है सिवा तुम्हारे

टी वी वाले पूछ रहे हैं, क्या छोड़ोगे नए साल में
उधर सुना है अमरीका में, ऐसा कुछ रिवाज़ है शायद
नए साल में खुद ही खुद कुछ, अपने में से कम करने का
मैं क्या छोडू समझ नहीं पाया हूँ अब तक, मुझमें क्या है सिवा तुम्हारे
और तुम्हें कम कर दूँ तो फिर, कहाँ बचूँगा नए साल में ......

सोमवार, जनवरी 14, 2013

शैलेष लोढ़ा के नाम एक खुला पत्र


शैलेष जी,

"वाह वाह क्या बात है" के लिए बहुत बहुत धन्यवाद. धन्यवाद इसलिए कि कविता और हिंदी के माधुर्य से वंचित होते जा रहे थे. भोंडे और व्यर्थ धारावाहिकों से बचने के लिए सब टीवी देखना शुरू किया. कम से कम सब टीवी पर धारावाहिक भोंडे नहीं हैं पर स्तरहीन हैं. वाह वाह क्या बात है एक जबरदस्त धारावाहिक बन कर उभरा. बस यह समझ लीजिये कि एक साधारण से रत्न की चाह थी और माणिक मिल गया. (मैं अतिश्योक्ति नहीं कर रहा हूँ, इसीलिए कोहिनूर नहीं कहा.) लगातार स्तरहीन धारावाहिकों से मन खिन्न हो गया था. "चिड़ियाघर" और "R. K. लक्ष्मण की दुनिया" को देख कर ऐसा लगता है कि क्या दर्शक इतने ही मुर्ख हैं या इन धारावाहिक बनानेवालों ने हमे इतना मुर्ख समझ लिया है. धीरे धीरे लापतागंज का स्तर भी गिरता चला गया. इमानदारी से कहता हूँ, इन धारावाहिकों का हाल देखकर "वाह वाह क्या बात है" से भी कोई ज्यादा उम्मीद नहीं थी. मैं इस धारावाहिक को भी ऐसा ही सोच रहा था. पर जब एक बार देखा तो दिल खुश हो गया. बस अगली पिछली सारी किश्तें देख डाली.

यहाँ पर आये हुए काफी सारे कवि तो हास्य के सशक्त हस्ताक्षर हैं और कुछ बन जायेंगे. साहित्य के इन ध्रुव तारों को भी सुना जैसे गोपालदास "नीरज", "डॉ. कुंवर बेचैन" और मानो जीवन धन्य हो गया. डॉ. कुंवर बेचैन जी को अपने कॉलेज की लाइब्रेरी में सुना था. उनकी कविता "क्या यह सूरज है तेरी औकात इस दुनिया में, रात के बाद भी है एक रात इस दुनिया में." की पंक्ति "किसी दीये पर अँधेरा उछाल कर देखो" मेरा जीवन मंत्र है. क्या यह कविता पूरी सुनाने को मिल सकती है? यदि ऐसा हुआ तो मैं हमेशा आपका ऋणी रहूँगा. महाकवि गोपालदास "नीरज" को सुना मन प्रसन्न हो गया और "हरी भरी वसुन्धरा पर नीला नीला ये गगन" से कार्यक्रम का आरम्भ, मन पुलकित हो गया. मैंने अपने बच्चो से इस गीत को याद करने को कहा और मेरे लिए सुखद आश्चर्य यह था कि मेरी दोनों बेटियों को पहले से ही याद था.

जो कविता और कवि के बारे में जानने को मिलता है उसका आनंद तो पूछो मत. जैसे डॉ. कुंवर बेचैन जी पर ८ पी. इच. डी. की जा चुकि हैं. कवि के परिवारवाले और मित्र जो उस कवि के बारे में बताते हैं वह तो कहीं मिल ही नहीं सकता. कवि जैमिनी ने आपको अपना बेटा बताया वो बहुत बढ़िया लगा. कवि अपनी पत्नी पर ही इतना हास्य कर लेते हैं. मजे की बात यह है कि उसी पर सबसे ज्यादा विश्वास करते हैं. आप ध्यान दे जब कवि का सम्मान हो चुका है उनकी पत्नी के साथ आकर खड़ी हो गयी है. तब माइक हाथ में लेते वक्त किस सहजता से पुरुस्कार का कलश पत्नी के हाथ में चला जाता है. बड़ा मजा आता है देखकर. कवि "शक से ना (सक्सेना)" का सम्मान हुआ तो एक अविस्मरणीय बात पता चली की वो आज भी अपने पुत्र के साथ एक ही थाली में खाते हैं. परन्तु मैंने इन दोनों के बीच कलश का ऐसा हस्तांतरण नहीं देखा. (मैं गलत भी हो सकता हूँ.)

माफ़ करना अंत में एक सुझाव जरूर दूंगा, कृपया नेहा जी की इतनी खिचाई ना करें. आप जिस जगह पहुँच गए है वहां से ऐसा करना शोभा नहीं देता। वह भी तब जब वो आपको अपना गुरु मान चुकी हैं. नारी का अपमान देख कर कष्ट होता है.

- मनोज कुमार शर्मा